"A vital collection of progressive essays on what a modern India-UK partnership could mean."

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बढ़ती रफ्तार: वैश्विक होता वाहन उद्योग

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इंडिया इंक के संस्थापक और सीईओ मनोज लाडवा देख रहे हैं कि भारत ने अपने वाहन उद्योग को किस तरह वैश्विक सफलता के रास्ते पर आगे बढ़ाया है।

जिस समय आप यह लेख पढ़ रहे हैं, उसी समय भारत के किसी बंदरगाह पर कम से कम 1,500 यात्री कारें और 6,000 मोटरसाइकलें जहाजों पर चढ़ाई जा रही हैं, जिन्हें पश्चिम एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका को निर्यात किया जाता है। उन पर लगे हुए बैज अंतरराष्ट्रीय वाहन उद्योग के दिग्गजों का पता देते हैं। कारों में टोयोटा, फोर्ड, फोक्सवैगन, सुजूकी तथा रेनो और दोपहिया में होंडा, बजाज तथा हीरो मोटोकॉर्प जैसी नामचीन कंपनियां हैं। और मैंने ट्रैक्टरों, भारी, मझोले तथा हल्के वाणिज्यिक वाहनों, तिपहिया तथा तरह-तरह के जटिल एवं सरल वाहन पुर्जों का जिक्र तो किया ही नहीं है।

पिछले तीन दशकों में भारत ने बहुत मजबूत घरेलू वाहन उद्योग तैयार किया है, जहां दुनिया के सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय ब्रांड बाजार में हिस्सा हासिल करने के लिए टाटा मोटर्स, महिंद्रा एंड महिंद्रा, बजाज ऑटो लिमिटेड तथा हीरो मोटोकॉर्प जैसी देसी वाहन कंपनियों के साथ होड़ करते हैं।

आज दुनिया के सबसे विकसित देशों में ग्राहकों को भारत में बने (मेड इन इंडिया) वाहन चलाते देखना कोई अनूठी बात नहीं है। जी हां, इनमें से अधिकतर वाहनों पर अमेरिकी, यूरोपीय, जापानी और दक्षिण कोरियाई कंपनियों का ठप्पा लगा रहता है, लेकिन भूल न करें – इनमें से हरेक कार को भारतीय तकनीकी माहिरों ने भारतीय कारखानों में अधिकतर उन पुर्जों के साथ तैयार किया होता है, जो न केवल भारत निर्मित होते हैं बल्कि इसी देश की अनुसंधान एवं विकास प्रयोगशालाओं में डिजाइन भी किए गए होते हैं।

इसके बाद एक भारतीय कंपनी ने अरबों डॉलर का निवेश कर मशहूर ब्रिटिश कार कंपनी जगुआर लैंड रोवर की प्रतिष्ठा बहाल की और उसकी किस्मत ही बदल दी। एक अन्य भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी अपोलो टायर्स ने भी हाल ही में हंगरी के एक संयंत्र में 50 करोड़ डॉलर का निवेश किया है, जो नीदरलैंड्स संयंत्र के बाद यूरोप में उसका दूसरा संयंत्र है।

इन सभी उदाहरणों से पता लगता है कि भारतीय वाहन उद्योग अब वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला और पुर्जों एवं किट के स्रोतों तथा पूरी तरह तैयार वाहनों से लेकर दुनिया भर में असेंबली संयंत्रों, वास्तविक पुर्जो निर्माताओं और शोरूमों से तालमेल बिठा चुका है।

‘इंडिया ग्लोबल बिजनेस’ के इस अंक में हम अपनी आवरण कथा ‘पिकिंग अप स्पीड’ के साथ स्वदेशीकरण के प्रयासों की इसी वैश्विक सफलता की गाथा कह रहे हैं। यह गाथा केवल इसीलिए नहीं कही जा रही है कि मेक इन इंडिया पहलों में यह सबसे सफल है बल्कि इसीलिए भी कि भारत को वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनाने के नरेंद्र मोदी सरकार के प्रयासों को इससे सबक भी मिलता है। देश के श्रमबल में हर वर्ष जुड़ने वाले लाखों युवा भारतीयों को नया रोजगार दिलाने के लिए वैश्विक विनिर्माण केंद्र पहली शर्त है।

शुरुआत छोटी हुई थीं, जिनकी खबर भी नहीं थी और जैसा भारत में अधिकतर क्रांतिकारी आर्थिक पहलों के साथ हुआ है, भारतीय बाजार को विदेशी कंपनियों के लिए खोलने के कारण इनकी जमकर आलोचना भी की गई।

जरा देखिए कि भारत में देसी रक्षा उद्योग का ठिकाना तैयार करने के मोदी सरकार के प्रयासों और भारत को वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक्स केंद्र के तौर पर स्थापित करने के उसके प्रयासों से यह कितना मिलता-जुलता है।

1980 के दशक में जापान की मुट्ठी भर कार और दोपहिया निर्माताओं ने भारत में कारखाने लगाए थे, जहां वे अपने देश से वाहनों के अलग-अलग हिस्से यहां आयात करते थे और दोबारा असेंबल करते थे। उस समय छोटी-छोटी शुरुआत करने वाले भारत ने धीरे-धीरे लेकिन व्यवस्थित तरीके से पुर्जे बनाने वाले स्थानीय आपूर्तिकर्ता तैयार किए ताकि उन वाहनों के आयातित पुर्जों की संख्या को घटाकर दुनिया भर में स्वीकार्य स्तर पर लाया जाए। साथ ही पुर्जे ही नहीं बल्कि पूरी कार और बाइक भी देश के ही भीतर बनाने के लिए जरूरी तकनीक और प्रणाली भी विकसित की गईं।

आज भारत 30 लाख से अधिक यात्री कारें और लगभग 2 करोड़ दोपहिया बनाता है तथा 5 लाख से अधिक कारें और करीब 20 लाख दोपहिया का निर्यात भी करता है।

चीन और उससे पहले दक्षिण एशिया की ‘टाइगर’ कहलाने वाली मजबूत अर्थव्यवस्थाओं ने पिछली शताब्दी में जब अलग-अलग समय पर दुनिया भर के कारोबार पर अपने झंडे गाड़ने का फैसला किया तो उन्होंने भी यही तरीका अपनाया था।

भारत ने यह तरीका देर में अपनाया, लेकिन जैसा कि वाहन उद्योग में इसकी सफलता से पता चलता है, इसके पास अन्य जटिल इंजीनियरिंग उद्योगों में भी यही सफलता दोहराने के लिए जरूरी साधन मौजूद हैं, चाहे वैज्ञानिक संसाधन हों या विनिर्माण की क्षमता।

खबरें हैं कि भारत एफ-16 या साब ग्रिपेन लड़ाकू विमानों को भारत में ही असेंबल करने के लिए लाइसेंस जारी करने पर विचार कर रहा है बशर्ते उन्हें बनाने वाली कंपनियां आपूर्तिकर्ताओं और विकास की अपनी देसी व्यवस्था भारत में भी दोहराने को तैयार हो जाएं। पनडुब्बियों और तोप तथा छोटे हथियारों के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है।

इन कार्यक्रमों को भी सीमित महत्वाकांक्षाओं के साथ शुरू करना होगा। लेकिन यदि इन पर अच्छा ध्यान दिया जाता है और तार्किक परिणति तक पहुंचाया जाता है तो एक दिन हमें नाटो और जापान की फौज में भारतीय लड़ाकू विमान उड़ते दिख सकते हैं और हो सकता है कि जिस देश में मैं रहता हूं, उसमें यानी ब्रिटेन में लोग किसी भारतीय कंपनी द्वारा इंगलैंड में ही असेंबल किए गए मोबाइल फोन पर बात करते तथा कंप्यूटर और टैबलेट की मदद से अपने करियर को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाते नजर आएं।

उधर भारतीय वाहन उद्योग की गहन पड़ताल करने वाले हमारे लेख के अलावा इस अंक के आगे के पृष्ठों में हमेशा की तरह भारत की वैश्विक प्रगति पर ढेर सारी सामग्री है।