"A vital collection of progressive essays on what a modern India-UK partnership could mean."

Order Now

"A vital collection of progressive essays on what a modern India-UK partnership could mean."

Order Now

ब्रिटेन के चुनावों में मिले झटके का भारत पर प्रभाव

0

ब्रिटेन में चुनावों के नतीजे राजनीतिक भूचाल से कम नहीं हैं – 10 महीने के भीतर ब्रिटने में आया दूसरा भूचाल, कहना है इंडिया इंक के सीईओ मनोज लाडवा का।

जिस तरह डेविड कैमरॉन उस समय ब्रिटेन में जनता का इरादा भांपने में चूक कर गए थे, जब उन्होंने ब्रेक्जिट पर मतदान कराया था; उसी तरह प्रधानमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा होने से पूरे तीन वर्ष पहले चुनाव कराने का टरीसा मे का निर्णय भी बड़ी राजनीतिक भूल साबित हुआ है। हालांकि उनका दांव उलटा पड़ा है और उसके बाद कुछ समय के लिए अनिश्चितता का माहौल बन गया है फिर भी मुझे विश्वास है कि राजनीतिक अस्थिरता जल्द ही थम जाएगी और सरकार एक बार फिर अपने काम पर लग जाएगी। और ऐसा जल्द ही होगा। टरीसा मे ने यह घोषणा करने में देर नहीं लगाई है कि वह वैचारिक समानता वाली अल्स्टर यूनियनिस्ट पार्टी के समर्थन से अल्पमत की सरकार चलाएंगी।

थोड़ा आगे की ओर देखने पर मुझे लगता है कि त्रिशंकु जनमत – और उसके कारण सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक रसूख में आई कमी – उन बादलों की तरह साबित हो सकती है, जिनमें उम्मीद की बड़ी किरण छिपी है। हम मान सकते हैं कि इससे उन लोगों के स्वर धीमे पड़ जाएंगे, जो ब्रेक्जिट के ऐसे विकल्प के हिमायती थे, जिसमें ब्रिटेन यूरोपीय संघ को यह सुनिश्चित किए बगैर ही छोड़ देता कि उसके सामान और कर्मचारियों को यूरोपीय संघ में आवाजाही का मौका मिलता रहे।

मे अपने दूसरे कार्यकाल में यदि ऐसा सोचती हैं कि खंडित जनादेश विदेशी कामकाज तथा लोगों के साथ संपर्क खत्म करने वाले ब्रिटेन के बजाय दुनिया भर में अधिक सक्रिय रहने वाले ब्रिटेन के लिए है तो वह एकदम सही सोच रही हैं। इससे भारत जैसी सेवा पर केंद्रित निर्यात अर्थव्यवस्था को ऐसी समझ-बूझ भरी आव्रजन प्रणाली के लिए दबाव डालने का मौका मिलेगा, जो यह बात समझे कि भारतीय प्रतिभा अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए कितनी कीमती है।

उन 800 के करीब कंपनियों के लिए यह अच्छी खबर होगी, जिन्होंने ब्रिटेन में अपना कारोबार वहां के विशाल और समृद्ध बाजार का लाभ उठाने के लिए ही स्थापित नहीं किया है बल्कि जो इंग्लिश चैनल के दोनों ओर स्थित आर्थिक जगत के बीच पुल का काम भी करती हैं।

ब्रेक्जिट यदि सख्त शर्तों वाला होता तो उन कंपनियों का निवेश जोखिम में पड़ जाता, जिन्होंने रकम केवल यही मानकर लगाई है कि उन्हें यूरोपीय संघ में आसानी से प्रवेश मिल जाएगा। ऐसी स्थिति न तो ब्रिटिश निवेशकों को अच्छी लगती और न ही भारतीय निवेषकों को और दोनों देशों के बीच रिश्तों में लंबे समय के लिए खटास आ जाती। भारतीय कंपनियां ब्रिटेन में निवेश करने वाला तीसरा सबसे बड़ा समूह बनाती हैं और देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वालों में शुमार हैं।

इसके अलावा यह जनमत वास्तव में (और कई लोगों की धारणा के उलट) ब्रिटेन-भारत आर्थिक संबंधों में निकटता को बढ़ावा देता है। भारत के महत्व और उसके साथ व्यापारिक संबंधों पर ब्रिटेन में व्यापक द्विपक्षीय राजनीतिक सहमति है। यह स्पष्ट है कि ब्रिटेन के मंत्रियों को सौदे कराने और समस्याएं दूर करने में मदद के लिए और मेहनत करनी होगी तथा बेहतर कौशल दिखाना होगा। मुझे उम्मीद है कि खंडित जनादेश दोनों सरकारों को उन कदमों पर जोर देने के लिए प्रोत्साहित करेगा, जिनकी तैयारी चल रही है।

सबसे पहले प्रधानमंत्री मे और मोदी को जल्द ही उस कार्यसमूह के कामकाज की समीक्षा करनी चाहिए, जिसकी स्थापना व्यापार और निवेश के गहन रिश्तों की संभावना तलाशने के लिए की गई है। अभी तक इस बारे में नाम मात्र की जानकारी है। उसके बाद दोनों सरकारें धूमधाम से मनाए गए ब्रिटेन-भारत संस्कृति वर्ष से उत्पन्न हुई सद्भावना का लाभ उठा सकती हैं। इस वर्ष का आयोजन लोगों के बीच संबंधों को बढ़ावा देने और प्रगाढ़ करने के लिए तथा दोनों महान देशों को एक करने वाले तत्वों का जश्न मनाने के लिए किया गया था। इस कार्यक्रम के जरिये दोनों देशों के लोगों के बीच भरोसा बढ़ाने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है।

राष्ट्रमंडल को सदस्य देशों के बीच अधिक मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने तथा बाजार अधिक सुगम बनाने में मदद करने वाला संगइन बनाने में ब्रिटेन और भारत के बीच सहयोग की प्रचुर संभावना भी है। अगले वर्ष अप्रैल में राष्ट्रमंडल के द्विवार्षिक शिखर सम्मेलन में राज्याध्यक्ष ब्रिटेन पहुंचेंगे। वहां उपनिवेश काल के बाद के इस पारंपरिक और सुस्त संगठन को नए सिरे से तैयार करने और केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका संभालने के लिए भारत के पास अच्छा मौका है।

आतंकवाद ऐसा अभिशाप है, जो भारत और ब्रिटेन (और वास्तव में दुनिया के अधिकतर हिस्सों) को कष्ट दे रहा है। मैनचेस्टर और लंदन आतंकी हमलों के साथ ही यह अभिशाप कुछ ही अर्से में तीन बार ब्रिटेन पर चोट कर चुका है, इसलिए दोनों पक्षों को इस खतरे से दोहरी ताकत के साथ लड़ने के लिए एक साथ आने की जरूरत है।

और अंत में पेरिस जलवायु संधि से बाहर आने के अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के फैसले के बाद ब्रिटेन और भारत जैसे देशों का फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के साथ मिलकर कमान संभालना अपरिहार्य हो गया है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हम भावी पीढ़ियों के लिए बेहतर दुनिया छोड़कर जाएंगे।

यह सब देखते हुए मुझे नहीं लगता कि ब्रिटेन में राजनीतिक भूचाल से ब्रिटेन या भारत को दीर्घकालिक नुकसान होगा। बल्कि इससे कई अधूरे कामों की लंबी सूची पर काम करने का मौका मिलता है। वास्तव में यह द्विपक्षीय रिश्ते पर अधिक ध्यान देने का मौका है, कम ध्यान देने का नहीं, जैसा डर कुछ लोगों को लग सकता है।