कॉर्पोरेट भारत की प्रशासनिक पीड़ा

भारत में कॉर्पोरेट प्रशासन को मजबूत किए जाने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सबसे प्रतिभाशाली प्रबंधक ही कंपनी की सीढ़ियां चढ़ सकें। इंडिया इंक के संस्थापक और सीईओ मनोज लाडवा की राय।

भारत की अग्रणी आईटी कंपनी इन्फोसिस के निदेशक मंडल और एन. आर. नारायणमूर्ति की अगुआई वाले संस्थापकों के एक वर्ग के बीच आरोपों-प्रत्यारोपों के दरम्यान सीईओ और प्रबंध निदेशक विशाल सिक्का ने एकाएक और नाटकीय तरीके से जो इस्तीफा दिया, उससे लगता है कि भारत की सबसे उम्दा प्रबंधन वाली प्रतिष्ठित कंपनियों में भी कॉर्पोरेट प्रशासन की गंभीर समस्या मौजूद हैं।

इन्फोसिस के घटनाक्रम ने भारतीय अर्थव्यवस्था, राजनीति और कंपनियों पर करीब से नजर रखने वाले मुझ जैसे लोगों को पहले हो चुकी ऐसी ही घटना की याद दिला दी। कुछ महीने पहले की बात है, जब कार्यमुक्त हो चुके एक और करिश्माई भारतीय उद्योगपति ने वापसी की और उस शख्स को बाहर निकाल दिया, जिसे उन्होंने स्वयं ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में चुना था। जी हां, मैं टाटा समूह के अवकाश प्राप्त चेयरमैन रतन टाटा और साइरस मिस्त्री के साथ उनके विवाद की बात कर रहा हूं।

इन्फोसिस के कर्मचारियों को लिखे पत्र में सिक्का ने कहा कि उन्होंने इन्फोसिस के सीईओ और प्रबंध निदेशक के पद से तुरंत प्रभाव से इस्तीफा दे दिया है क्योंकि हाल के महीनों और तिमाहियों में लगातार सामने आए व्यवधानों और विवादों के कारण कंपनी के कायाकल्प के अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना उनके लिए मुश्किल हो गया है। सिक्का का इशारा उनको मिलने वाले वेतन, पूर्व सीएफओ राजीव बंसल को कंपनी छोड़ने के एवज में दिए गए भारी भरकम सेवरंस पैकेज और पनाया नाम की कंपनी के हाल ही में इन्फोसिस द्वारा किए गए अधिग्रहण पर उठे आरोपों जैसे विभिन्न मसलों पर कंपनी के संस्थापक और अवकाशप्राप्त चेयरमैन मूर्ति द्वारा की जा रही तीखी आलोचना की ओर था।

दोनों ही मामलों में संस्थापकों/प्रवर्तक ने कॉर्पोरेट प्रशासन के उन नियमों से भटकने का आरोप लगाया है, जो उन्होंने अपनी-अपनी कंपनियों के लिए तय किए हैं। लेकिन यह भी सही है कि प्रमाण नहीं होने के कारण मानदंडों से भटकने के उनके आरोपों ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि उन्हें किसी तरह की गलतफहमी तो नहीं हो गई है।

इतनी लंबी बात कहने का उद्देश्य इन दोनों मामलों के गुणदोषों पर विचार करना नहीं था बल्कि उनके माध्यम से एक और समस्या की ओर ध्यान ले जाना था – वह समस्या है कॉर्पोरेट प्रशासन की, जिसमें शीर्ष पर उत्तराधिकार योजना भी शामिल है।

मैं इतना योग्य नहीं हूं कि मूर्ति और टाटा के फैसलों को सही या गलत ठहरा सकूं। वह गुजर चुका है और जो गुजर चुका है, उस पर चर्चा कर समय नष्ट करने का कोई लाभ नहीं। लेकिन मुझे उम्मीद है कि “उच्च सिद्धांतों” को बचाने के लिए अपने ही हाथों से चुने हुए उत्तराधिकारयों के साथ प्रतिष्ठित संस्थापकों/प्रवर्तकों की भिड़ंत की ये दो चर्चित घटनाएं भारतीय कंपनी जगत को और भी कठोर प्रशासन मानदंड अपनाने के लिए प्रेरित कर सकती हैं।

जैक वेल्च जीई के प्रतिष्ठित चेयरमैन थे। बल्कि कहा जा सकता है कि जीई के वर्तमान स्वरूप को केवल और केवल एक व्यक्ति ने गढ़ा है – वेल्च। लेकिन जब उन्होंने अवकाश लिया और कमान जेफ इमेल्ट को सौंपी तो उन्होंने अपने उत्तराधिरी के सिर पर मंडराने और यह देखने की जरूरत कभी नहीं समझी कि उनकी विरासत की हिफाजत की जा रही है या नहीं।

प्रवर्तक परिवारों द्वारा अपनी कंपनियों का समूचा प्रबंधन पेशेवरों के हाथों में छोड़ दिया जाना पश्चिम में सामान्य बात है। वहां ऐसे सैकड़ों मामले हुए हैं। वॉल्ट डिज्नी एंड कंपनी में डिज्नी नाम का कोई नहीं है, प्रॉक्टर एंड गैंबल में न तो कोई प्रॉक्टर और न ही कोइ गैंबल और ह्यूलिट पैकर्ड में भी कोई ह्यूलिट या पैकर्ड नहीं है। लगगभ तय है कि बिल गेट्स की बेटी को उस कंपनी में कोई भी बड़ी भूमिका नहीं मिलेगी, जिसके सह-संस्थापक उसके पिता हैं।

फिर भारतीय कारोबारों में ही संस्थापक परिवार नियंत्रण छोड़ने में इतना क्यों कतराते हैं? उस जमाने में तो यह समझ आता था, जब प्रबंधन पर नियंत्रण के कारण कम हिस्सेदारी वाले प्रवर्तकों को भी अन्य अवैध लाभ उठाने का अधिकार मिल जाता था।

लेकिन उम्मीद है कि वह जमाना अब गुजर चुका है।

जब हम उस दौर की ओर बढ़ रहे हैं, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी “नया भारत” कहते हैं तो हम कॉर्पोरेट प्रशासन के ऐसे ढांचे की कोशिश कर सकते हैं, जिसमें प्रबंधन मालिकों से अलग हो ताकि सर्वश्रेष्ठ प्रबंधक कंपनी में ऊपर पहुंच सकें और इस क्रम में उन कंपनियों के संस्थापक परिवारों के वारिसों की संपत्ति को कई गुना बढ़ा सकें।

मुझे खुशी है कि कुछ मामलों में वाकई ऐसा हो रहा है। उदाहरण के लिए मणिपाल पई समूह के नियंत्रण वाली किसी भी कंपनी में पई परिवार का कोई भी व्यक्ति कार्यकारी पद पर नहीं है। डाबर पर नियंत्रण रखने वाले बर्मन परिवार के साथ भी ऐसा ही है। लेकिन भारतीय कारोबारी परिवारों में इनकी संख्या अब भी बहुत कम है।

लेकिन मुझे आशा है कि चूंकि कॉर्पोरेट प्रशासन के और भी सख्त नियम बड़ी और मझोली भारतीय कंपनियों के अंदरूनी कामकाज में पारदर्शिता के दिये जला रहे हैं, इसलिए आने वाले वर्षों में ऐसी कंपनियों की संख्या बढ़ती जाएगी।