भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लोगों को हैरान करने की अद्भुत क्षमता और विरोधियों से एक कदम आगे चलने की रणनीति का 3 सितंबर, 2017 को बेहतरीन नमूना तब देखने को मिला जब उन्होंने अपनी मंत्रिपरिषद में फेरबदल किया। इसमें उन्होंने शानदार प्रदर्शन करने वाले अपने चार राज्य मंत्रियों को कैबिनेट का दर्जा दिया तो राज्य मंत्री के रूप में नौ नए मंत्रियों को शामिल किया।
शपथ ग्रहण समारोह के कुछ मिनटों के बाद लगभग सभी टीवी चैनलों और ऑनलाइन न्यूज पोर्टल्स पर हतप्रभ टिप्पणीकार बरबस यह पूछ रहे थे, “तो अब क्या?” शुरुआती सहमति यही बन रही थी मोदी के आखिरी कैबिनेट फेरबदल या कहें विस्तार में बस पत्ते फेंटने का ही काम हुआ है और इसमें किसी व्यापक सोच का अभाव है।
कुछ देर बाद विभागों का आवंटन हुआ। इसने विमर्श की धारणा को एकाएक पूरी तरह से बदल दिया और यहां तक कि इसने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जैसे सरकार के धुर आलोचकों को भी इस पर प्रधानमंत्री को बधाई देने पर विवश कर दिया।
आखिर घंटे भर के दौरान क्या बदल गया?
प्रधानमंत्री प्रदर्शन और परिणाम देने के प्रति आग्रही अपेक्षाओं पर खरे उतरे और उन्होंने चार पूर्व नौकरशाहों की मंत्रिपरिषद में नियुक्ति की। इनमें संयुक्त राष्ट्र में भारत के पूर्व प्रतिनिधि हरदीप पुरी, पूर्व गृह सचिव आरके सिंह, मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त एसपी सिंह और डीडीए के पूर्व आयुक्त के अल्फोंस (जो दिल्ली में बने अवैध 15,000 मकानों को गिराकर डेमोलिशन मैन की ख्याति अर्जित कर चुके हैं) को मंत्रिपरिषद में शामिल कर उन्हें जन-सरोकारों से जुड़े अहम मंत्रालयों का दायित्व सौंपा।
फिर उन्होंने बेहतरीन प्रदर्शन से प्रतिमान गढ़ रहे अपने चार राज्य मंत्रियों को पुरस्कृत किया। इनमें कोयला, अक्षय ऊर्जा और बिजली मंत्री रहे पीयूष गोयल, वाणिज्य मंत्री रहीं निर्मला सीतारामन, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय में राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी और तेल एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय में राज्य मंत्री रहे धर्मेंद्र प्रधान को पदोन्नति देते हुए कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया।
मगर इसमें भी वाणिज्य एवं उद्योग राज्य मंत्री रहीं निर्मला सीतारामन को रक्षा मंत्री बनाना ही सबसे चर्चित पहलू रहा। भारत में गृह, वित्त, रक्षा और विदेश मंत्रालय को “बिग फोर” का तगमा दिया जाता है, क्योंकि ये सभी मंत्री मंत्रिमंडल की सबसे महत्वपूर्ण मानी जाने वाली सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस) के पदेन सदस्य होते हैं। सीतारामन देश की पहली महिला रक्षा मंत्री हैं। इससे पहले प्रधानमंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी ने भी दो बार रक्षा मंत्रालय का कार्यभार तब संभाला था जब उनकी सरकार के रक्षा मंत्रियों को दूसरे विभागों में भेज दिया था। यह सच है कि भारत के इतिहास में यह पहला अवसर है जब बतौर रक्षा मंत्री सीतारामन और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के रूप में दो महिलाएं पहली बार एक साथ सीसीएस का हिस्सा बनी हैं।
सीतारामन ने अरुण जेटली से रक्षा मंत्रालय का प्रभार संभाला है जो वित्त मंत्री के रूप में अपने मूल दायित्व के साथ ही रक्षा का अतिरिक्त प्रभार भी संभाले हुए थे। कार्यभार संभालते हुए ही सीतारामन ने साफ किया कि सैन्य तैयारी, मेक इन इंडिया और सैनिकों एवं उनके परिवारों का कल्याण ही उनकी प्राथमिकता होगी। अपने संदेश में उन्होंने कहा, “सुरक्षा बलों की तैयारी निश्चित रूप से मेरी प्राथमिकता होगी। यह बेहद महत्वपूर्ण है कि भारतीय सुरक्षा बलों पर इस लिहाज से काफी ध्यान दिया गया है कि आदर्श रूप में उनके कार्यसंचालन के लिए उपलब्ध सबसे बेहतर उपकरणों के साथ ही उनकी सभी जरूरतों को पूरा किया जाएगा।” दो अन्य नियुक्तियों ने भी काफी ध्यान आकर्षित किया है।
वाणिज्य मंत्री के रूप में सीतारामन ने प्रधानमंत्री के कुशल निर्देशन में मेक इन इंडिया योजना को आकार देने के साथ ही उसका आगाज किया। अब रक्षा मंत्री के रूप में उन्हें घरेलू स्तर पर रक्षा साजोसामान बनाने के लिए घरेलू रक्षा उद्योग आधार ढांचा तैयार करने में लगभग शून्य से शुरुआत करनी होगी।
रक्षा क्षेत्र से जुड़ी दिग्गज अमेरिकी कंपनी लॉकहीड मार्टिन द्वारा भारत में एफ-16 और स्वीडिश विमान निर्माता एसएएबी द्वारा ग्रिपिन लड़ाकू विमान भारत में बनाने संबंधी प्रस्ताव उनकी बाट जोह रहे हैं। फिर ऐसे प्रस्ताव भी लंबित हैं जिनमें विदेशी कंपनियों से तकनीकी हस्तांतरण के दम पर देसी निजी कंपनियों के साथ मिलकर देश में ही पनडुब्बी, सैन्य वाहन, बंदूक, तोप और मिसाइलें बनाने की योजना प्रस्तावित है। जेटली इसके लिए पहले ही पूरा खाका तैयार कर चुके हैं, लेकिन अब उन्हें इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए इन योजनाओं को सिरे चढ़ाने का मसौदा तैयार करना होगा। निश्चित रूप से यह बड़ी चुनौती है और इसके लिए मैं उन्हें शुभकानाएं प्रेषित करता हूं।
पीयूष गोयल को भारत के सबसे बदहाल-खस्ताहाल माने जाने वाले बिजली क्षेत्र के कायाकल्प का शिल्पकार माना जाता है। अब उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाकर रेल मंत्रालय सौंपा गया है। इस साल के आम बजट से पहले तक इस विभाग का संसद में अलग से बजट पेश किया जाता था। यह विभाग पिछले 70 वर्षों में अपनी अनदेखी की व्यथा ही बयां करता है। पिछली सरकारों ने रेलवे का दुधारू गाय के रूप में ही दोहन किया। अतीत में अधिकांश रेल मंत्रियों ने भी अपने राजनीतिक हितों को देखते हुए इसका लाभ उठाया और यात्री किराये को कृत्रिम रूप से कम बनाए रखा, आर्थिक रूप से अव्यावहारिक क्षेत्रों में नई रेलगाड़ियां चलाईं और सुरक्षा एवं आधुनिकीकरण को पूरी तरह से नजरअंदाज किया।
परिणास्वरूप दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क भारतीय रेलवे अक्षमता का शिकार हो गया और बेतरतीब कर्मचारियों-अधिकारियों और सुरक्षा के मोर्चे पर दयनीय रिकॉर्ड ने एक तरह से रेलवे का बेड़ा गर्क कर दिया। गोयल के पूर्ववर्ती सुरेश प्रभु ने रेलवे की वित्तीय एवं परिचालन सेहत सुधारने के लिए काम शुरू किया और इस भीमकाय संगठन के आधुनिकीकरण और सुरक्षा की स्थिति सुधारने के लिए तकरीबन 20 अरब डॉलर की राशि आवंटित की।
अधिकांश पैमानों पर उन्होंने असाधारण काम किया। दुर्घटनाओं की संख्या कम हो गई, ट्रैक आधुनिकीकण का काम सिरे चढ़ा तो विद्युतीकरण का काम युद्धस्तर पर छेड़ा गया और उनके कार्यकाल में रेल हादसों की संख्या वास्तव में काफी घट गई।
उनके कार्यकाल के अंतिम दिनों में दुर्भाग्यवश एक के बाद एक हुए तीन हादसों ने संवेदनशील प्रभु को व्यथित कर दिया और उन्होंने अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी जिस पर प्रधानमंत्री ने कथित तौर पर उनसे ‘प्रतीक्षा करने’ को कहा।
अब गोयल के लिए अपने काम की तस्वीर एकदम साफ है। उन्हें प्रभु द्वारा रखी गई मजबूत बुनियाद पर बुलंद इमारत खड़ी करनी है और उनकी अगुआई में शुरू हुए आधुनिकीकरण के काम को अंजाम तक पहुंचाना है। नौकरशाही के स्तर पर इतने ही जटिल बिजली मंत्रालय में उनकी कामयाब को देखते हुए यही उम्मीद की जा सकती है कि उनके नेतृत्व में रेलवे की हालत निरंतर सुधार की ओर अग्रसर होगी।
मीडिया ने तो यह एलान कर ही दिया था कि प्रभु की मंत्रिमंडल से ही विदाई हो जाएगी, लेकिन प्रतिभा और प्रदर्शन के अद्भुत पारखी मोदी ने उनमें अपना भरोसा नहीं खोया। उन्होंने सीतारामन के जाने से खाली हुई वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री की कुर्सी उन्हें सौंप दी।
यहां उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता भारत के निर्यात का कायाकल्प सुनिश्चित करने की होगी। लेकिन अमेरिका और यूरोपीय संघ में चल रही संरक्षणवाद की बयार को देखते हुए यह बेहद टेढ़ी खीर होगी, क्योंकि भारतीय निर्यात के लिए यही दो सबसे बड़े बाजार हैं।
फिर उन्हें मेक इन इंडिया की सफलता भी सुनिश्चित करनी होगी जो भारत सरकार की बेहद महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक है। प्रभु को इसे तार्किक परिणति तक पहुंचाना होगा।
कई तरह से ये दोनों कवायदें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। निर्यात बढ़ाने के लिए भारतीय उद्योगों को अधिक उत्पादन करना होगा। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उत्पाद की कीमत कम रहे ताकि वह बाजार की प्रतिस्पर्धा में टिक सके और उसकी गुणवत्ता भी ऐसी हो जो वैश्विक खरीदारों के लिए स्वीकार्य हो।
बहरहाल मेक इन इंडिया की सफलता में निजी निवेश की अहम भूमिका होगी जो कई कारणों से अटका हुआ है। सबसे बड़ी बाधा तो बैंकों से नया कर्ज मिलने में आ रही परेशानी से है तो बाबा आदम के जमाने से चले आ रहे नियमों और कुंडली मारकर बैठने वाली नौकरशाही इस कोढ़ में खाज साबित हो रही है जिसका परिणाम यही है कि तमाम कोशिशों के बावजूद विश्व बैंक की ईज ऑफ डुईंग बिजनेस यानी कारोबार के लिए सुगम राह सूचकांक में देश अपेक्षित रूप से ऊपर नहीं चढ़ पा रहा है।
इसमें पहली बाधा तो वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक के संयुक्त तत्वाधान में नई दीवालिया संहिता को तेजी से सिरे चढ़ाने की कवायद के रूप में हो रही है।
ईज ऑफ डुइंग बिजनेस से जुड़ी दूसरी बाधा दूर करने का काम अब प्रभु के जिम्मे है। वाणिज्य मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग ने भारत में कारोबार की राह सुगम बनाने के लिए तमाम कदम उठाए हैं। इसका ही नतीजा है कि इस सूचकांक में भारत 142वें स्थान से उछलकर 130वें पायदान पर पहुंच गया जो एक साल के दौरान किसी भी देश की सबसे ऊंची छलांग है। अब प्रभु को इस तेजी को बरकरार रखना होगा ताकि एक निश्चित समय में भारत को इस सूचकांक के शीर्ष 50 देशों की फेहरिस्त में शामिल कराने के मोदी के सपने को पूरा किया जा सके।
पूर्व गृह सचिव आरके सिंह को प्रधानमंत्री ने बिजली एवं अक्षय ऊर्जा राज्यमंत्री (स्वंतंत्र प्रभार) नियुक्त किया है जिस विभाग के मुखिया अभी तक गोयल थे। पहली बार सांसद बने सिंह के पास इस मंत्रालय में गोयल की समृद्ध विरासत को आगे बढ़ाने की महती जिम्मेदारी होगी। मंत्रिपरिषद में उनके शामिल होने पर तमाम लोगों को हैरानी हुई है, लेकिन मेरी राय में प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राजनीति पर योग्यता यानी मेरिट को यह देखते हुए ही तरजीह दी है कि आम चुनाव में महज 18 महीने ही बचे हैं।
सिंह की छवि ईमानदार, सक्षम और सम्मानित अधिकारी की रही है जिन्होंने अपने 34 वर्षों की प्रशासनिक सेवा के दौरान कई मुश्किल कामों को अंजाम दिया। वह 2013 में ही सेवानिवृत्त हुए हैं और इस लिहाज से उनके नए मंत्रालय में सभी अधिकारी प्रशासनिक सेवा के उनके कनिष्ठ (जूनियर) अधिकारी ही हैं। वह तंत्र की अंदरूनी समझ और उस पर पकड़ भी रखते हैं जिन्हें यह भली-भांति मालूम है कि नई दिल्ली में सत्ता के गलियारों की भूल-भुलैया में काम कैसे कराए जाते हैं।
सिंह ने कहा है कि उन्हें अपने पूर्ववर्ती पीयूष गोयल द्वारा शुरू किए काम को आगे बढ़ाकर पूरा करना है। बिजली एवं अक्षय ऊर्जा मंत्री के रूप में उनकी प्राथमिकताओं के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि इस बारे में वह कुछ दिन बाद ही कोई टिप्पणी करेंगे।
भारत में कामकाजी आबादी को कौशल प्रदान करने के लिहाज से कौशल विकास सरकार का बेहद महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है जिसके नजीजे अभी सामने आना बाकी हैं। अब इसकी कमान पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को सौंपी गई है जिन्होंने प्रधानमंत्री की बेहद प्रिय उज्ज्वला योजना को उम्मीद के कही बढ़कर कामयाबी दिलाई है जिसमें गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों को रसोई गैस कनेक्शन-सिलिंडर मुहैया कराया जा रहा है।
और नितिन गडकरी जो मोदी सरकार में कर्मठता की प्रतिमूर्ति बनकर उभरे हैं, उन्हें नदी विकास एवं गंगा पुनर्जीवन का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया है। बिजली ग्रिड की तरह उन्होंने नैशनल वॉटर ग्रिड बनाने के संकेत देकर अपने इरादे भी जता दिए हैं जिसमें देश में अतिरिक्त पानी वाले इलाकों को पानी की किल्लत वाले इलाकों से जोड़कर बाढ़ और सूखे की समस्या का समाधान करने की कोशिश होगी।
अगला आम चुनाव अप्रैल-मई 2019 में होना है। इस बीच सत्तारूढ़ भाजपा को हिमाचल प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे प्रमुख राज्यों के चुनावों का भी सामना करना है।
इस फेरबदल से यही संकेत मिलते हैं कि प्रधानमंत्री अपने वादों को पूरा करने के लिए बेहद गंभीर हैं (जो उन्हें दोबारा सत्ता दिलाने में अहम होगा) और इसके लिए उन्हें पेशेवर और खुद को साबित कर चुके दिग्गजों पर ही ज्यादा भरोसा है।
हालिया फेरबदल से यह भी संकेत मिलते हैं कि भारतीय राजनीति में अमूमन जाति और क्षेत्र के अलावा तमाम दूसरे पैमानों पर होने वाले विभागों के बंटवारे का दौर अब बीत चुका है। अब ऐसे पैमानों की खास भूमिका नहीं रही है।
मंत्रिपरिषद में फेरबदल की यह समग्र तस्वीर मजबूती के साथ यही संदेश देती है कि मोदी का सुधारवादी एजेंडा जारी रहेगा और उसकी रफ्तार पहले से भी तेज होगी।